नृत्य और कला के जरिये सामाजिक मुद्दों के साथ लोगों की विचारधारा में भी लाया जा सकता है बदलाव: गीता चंद्रन
29 दिसंबर 2020, कोलकाता: सुप्रसिद्ध भरतनाट्यम डांसर एवं नाट्य संगीत की अदाकारा पद्मश्री गीता चंद्रन का मानना है कि, नृत्य और कला के जरिये सामाजिक मुद्दों के साथ समाज के लोगों की सोच एवं उनकी विचारधारा में बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। अगर हम कला और शिक्षा को अधिक महत्व देकर इसके अर्जन पर जोर देते तो हमारे आसपास आज इतनी हिंसा और तनाव का माहौल नहीं होता, क्योंकि कला आपको अधिक संवेदनशील बनाना सिखाती है। श्री सीमेंट के सौजन्य से कोलकाता की सुप्रसिद्ध सामाजिक संस्था “प्रभा खेतान फाउंडेशन” द्वारा आयोजित “एक मुलाकात विशेष” कार्यक्रम के एक घंटे के विशेष ऑनलाइन सत्र में अपने विचार व्यस्क करते हुए बहुमुखी नृत्य शिक्षक, कार्यकर्ता और नाट्य कलाकार के अलावा नृत्य विद्यालय के संस्थापक अध्यक्ष पद्मश्री गीता चंद्रन ने यह बाते कही।
अबतक अपने जीवन में टेलीविजन, वीडियो, फिल्म, थियेटर में काम कर चुकीं गीता चंद्रन ने अपने विचारों और जीवन के अनुभव को श्रीमती शिंजिनी कुलकर्णी, अहसास वुमेन ऑफ नोयडा के साथ ऑनलाइन सत्र में साझा किया। देश के विभिन्न कोने से उपस्थित लोग इस ऑनलाइन सत्र में शामिल हुए। देश के कई भरतनाट्यम के पारंपरिक स्कूलों से कई लोगों की चित्रकारियों और कला को लेकर गीता चंद्रन कठपुतली और मार्शल आर्ट जैसी क्रॉस आर्ट का भरतनाट्यम में प्रयोग कर रही हैं।
”गीता ने कहा: इससे पहले देशभर में अधिकतर कथक के दर्शक होते थे। भरतनाट्यम को अन्य कलाकारों के प्रदर्शन के बाद रात को 1 बजे या 2 बजे का समय दिया जाता था। पहले के दिनों में कुछ ऐसा हुआ करता था। उस समय एक दर्शक के बीच गैर-नर्तकियों को लाना एक नुकसान का व्यापार का माध्यम हुआ करता था, मैंने दर्शकों के बीच तेजी से अपना नृत्य पेश किया और इसे दर्शकों के मन में बसाने की कोशिश की।
गीता चंद्रन ने कहा, मुझे लगता है कि दर्शकों में भरतनाट्यम की डिमांड बढ़ी है। मै उन लोगों को विनम्र प्रणाम करती हूं, जिन्होंने हमारे लिए इतनी दूर से इस कार्यक्रम में आने का मार्ग प्रशस्त किया। गीता चंद्रन ने कहा कि, तमिलनाडु की संस्कृति में भरतनाट्यम गहराई से समाहित है और पूरी तरह से यह इस परंपरा में निहित है क्योंकि इसके बाद इसे बहुत संरचित और संस्थागत शिक्षण मिला।
गीता ने कहा : मैंने 90 के दशक में गुरु दक्षिणा मूर्ति सर से शिक्षा ग्रहण करना शुरू किया। शुरुआत में मैं सिर्फ उनकी अकादमी में उनकी मदद कर रही थी। वह मुझे अपने छात्रों को बैठाने और देखरेख करने के लिए अपने साथ शिक्षण संस्थान में ले जाया करते थे। क्योंकि वो मुझे साथ ले जाते थे, इसलिए मुझे पढ़ने और आगे बढ़ने के लिए उनसे बहुत आशीर्वाद मिला।
भरतनाट्यम और उनके स्कूल “नाट्य वृक्ष” में पढ़ाने की शैली का उल्लेख करते हुए गीता ने कहा, मुझे एहसास हुआ कि शहरों में बच्चे अंतर्राष्ट्रीय परंपरा में ढलने के लिए एक सपने का पीछा करते हुए आगे बढ़ते हैं, जो अभी तक उनकी अपनी परंपरा में आधारित हैं। इसलिए मुझे एक ऐसी शिक्षा शास्त्र के बारे में सोचना था जो नई पीढ़ी की सोच एवं उनकी विचारधारा से हमे जोड़ सके। ऐसा होने पर कई जगहों पर डिस्कनेक्ट दूर हो सकता था। इसलिए हमने बहुत सारे रंगों, बनावट, मिथकों, संगीत और रूप का उपयोग करके जगह बनाई, क्योंकि मुझे लगता है कि सौंदर्य गुणों को सिखाया नहीं जा सकता। इसका अनुभव करने की जरूरत होती है। इन सभी चीजों को शिक्षा शास्त्र में सिखाया जाता है, जिससे मन में जिज्ञासाएं और बढ़ती है।
उन्होंने कहा, हमें आज के युवा पीढ़ी के डांसरों को बहुत स्वतंत्रता देनी चाहिए क्योंकि वे बहुत दबाव में होते हैं और रोबोट की तरह जीवनशैली जीते हैं। शिक्षक और छात्र के बीच संवाद बहुत महत्वपूर्ण है और मेरे शिक्षक के बीच कभी संवाद हुआ ही नहीं था, यह एक तरह से बहुत सख्त किस्म की बात थी। मैं ऐसा नहीं चाहती थी, मैं अपने छात्रों के लिए एक दोस्त बनकर रहना चाहती थी।
एक सवाल के जवाब में कि, डांस सीखने के लिए आध्यात्मिक होना ज़रूरी है? इसपर गीता ने कहा, मुझे ऐसा नहीं लगता। मुझे लगता है कि हर आत्मा अलग है, हर व्यक्ति अलग है, हर कोई अलग है, हर कोई समान रूप से मान्य है। मेरे पास ऐसे भी छात्र हैं, जो गैर-विश्वासी हैं। मुझे लगता है कि उन्होंने एक तीव्रता के साथ खूबसूरती से नृत्य पेश किया है जो काफी अलग है।
वृंदावन के राधारमण जी मंदिर में सेवा प्रदर्शन करना मेरे लिए एक जीवन परिवर्तनकारी अनुभव था। मैं इस सेवा का हिस्सा थी, मैं नृत्य नहीं कर रही थी। मैं नृत्य के जरिये राधारमण जी की सेवा में शामिल होना चाहती थी। उन्होंने सिर्फ मेरा पूरा काम संभाला था। मैं वहां इस सेवा के लिए लगभग हर साल जाती थी। यह मेरे लिए नया अनुभव था क्योंकि इसके पहले दक्षिण भारत में सेवा करनेवाले नर्तकियों के बारे में मै काफी पढ़ चुकी थी, क्योंकि भरतनाट्यम दक्षिण भारतीय मंदिरों में अनुष्ठानिक परंपरा से काफी अलग था। मेरे लिए यह लगभग जीवंत होने के समान था, क्योंकि पहले आप जिसके बारे में सिर्फ पढ़ा करते थे लेकिन अब आप वास्तव में मंदिर में सेवा कर रहे थे। यह सेवा आपके ईष्ट देवता के साथ वन-टू-वन जैसा था। अपनी कला के माध्यम से मै अपनी पूरी कला को सेवा के माध्यम से अपने परमात्मा को अर्पित कर रहे होते हैं। मेरे लिए यह पूरी तरह से अलग अहसास था।